ગુરુદેવની જય હો, અત્રિના પુત્ર દત્તાત્રેયજીને વંદન, જે ત્રણે લોકના સ્વામી છે. દત્તાત્રેય પ્રભુ લોકોનું મૃત્યુ, સંસાર કાળ અને તકલીફો બધુ જ દૂર કરી દે છે.
દત્તાત્રેય પ્રભુ ભુક્તિમુક્તિ આપનાર છે, જે આનંદનો (સત- ચિત્ત્ – આનંદ) સાર છે. નમ્ર ભકતોને વરદાન આપી તેમનો ઉધ્ધાર કરે છે, દત્તાત્રેય ગુરુ વેદ–શાસ્ત્રોના સાર છે.
ગળામાં અને હાથમાં મોતીની માળા (હાર) છે, જેમણે મસ્તક પર જટાઓ ધારણ કરેલી છે. જેમના તેજથી કામદેવ પણ પરાજિત થાય છે, દત્તાત્રેય ગુરુ ૬ આંતરિક શત્રુઓનો સંહાર કરે છે. [ષડરિપુ- કામ, ક્રોધ, મદ, મત્સર (ઇર્ષ્યા), મોહ, લોભ]
દત્તાત્રેય ગુરુ બૂરા (ખરાબ સ્વભાવ) ઈરાદા વાળા માટે ભયાનક- વિકરાળ રુપ પણ ધારણ કરી શકે છે, કપાળ પર ભસ્મ ધારણ કરેલ છે. તેમના હાથમાં શંખ, ત્રિશુલ, કમંડળ, માળા, ડમરુ, ચક્ર સુશોભિત છે.
દત્તાત્રેય ગુરુ કળિયુગના પાપ હરી લેનાર છે. દેવતાઓ, સાધુઓ અને સંસારીજનોને તારી લેનાર છે. દત્તાત્રેય પ્રભુએ અનેક વાર સ્વૈચ્છિક રીતે વન-વિહાર કરેલ છે, તેમનો આહાર જ્ઞાનરુપી અમૃત છે.
जब हम दुनियादारी की स्वार्थ वृति से टूट जाए, तब हमें यह श्लोक निस्वार्थ वृति को फैलाने की शक्ति देता है। हमें कभी अकेला महसूस नहीं होने देगा, गर विश्वास है तो ईश्वर हमारे साथ ही है क्योंकि वह हमारे भीतर ही है, हमें ही भीतर देखना है।
यह श्लोक का अर्थ हम सभी को पता है, पर क्या गहराई में महसूस किया है? गर गहराई से महसूस किया होता तो कभी खुद को अकेले नहीं पाते। अक्सर एसा होता है कि जब अपने कहलाते लोगों से हमारा दिल टूटता है, धोखा मिलता है, हमारे साथ भेदभाव होता है तो हम जीवन में निराश होकर अकेलापन महसूस करते है, रिश्तों पर से हमारा भरोसा टूट जाता है, तभी यह श्लोक हमारी शक्ति और हमारी प्रेरणा बन सकता है।
श्लोक:
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव त्वमेव विद्या द्रविड़म त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम् देव देव ||
अर्थात्:
हे देव, आप ही मेरी माता हो, आप ही मेरे पिता हो, आप ही सगे-संबंधी या भाई हो, आप ही मित्र हो।
आप ही विधा हो, आप ही धन (समृद्धि) हो, मेरा सबकुछ आप ही हो।
हमें हमेशा स्मरण रहे, हम हमेशा अपनी वाणी से बोलते रहे, कि हमारा कर्तव्य लोगों का हित करना है और मानवता के प्रति है।
हम भौतिक सुखों पर ध्यान केंद्रित न करें न ही भोग विलास की गोद में बैठे रहें, हमें हमेशा जागृत रहना है, कि हमारा कर्तव्य लोगों का हित करना है और मानवता के प्रति है।
हम अपने दुखों पर ही ध्यान न दे, न ही लगातार हमारी खुशीयों पर ध्यान दे, हमें अपने कर्तव्य पालन के लिए कदम उठाने चाहिए, हमारा कर्तव्य लोगों का हित करना है और मानवता के प्रति है।
हम दुःख के महासागरों को पार कर ले, हम कठिनाई के पहाड़ों को माप ले, विपत्तियों से गुजरते हुए भी, हमारा कर्तव्य लोगों का हित करना है और मानवता के प्रति है।
घनघोर अंधकार में घिरे हुए हो, या मित्रो और परिजनों के द्वारा दिये गये दुःख से घिरे हुए हो, जब कभी हम एसे रास्तों पर होते है, तब भी हमारा कर्तव्य लोगों का हित करना है और मानवता के प्रति है।
श्री कृष्ण की कृपा से जो गूंगे होते है वो भी बोलने लगते हैं, जो लंगड़े होते है वो पहाड़ों को भी पार कर लेते हैं। उन परम आनंद स्वरूप माधव की मैं वंदना करती हूं।