क्यों गले से लगाकर रखते हो,
ज़ख्मों को?
क्यों पनाह दे रहे हो,
दर्द को?
ज़रा खुल के रख दो,
अपने ज़ख्मों को।
ज़रा हलका कर दो दिल को,
आजाद हो जाओ।
बारिश में अपने,
ज़ख्मों को बह जाने दो।
पवन की तेज़ गति में अपने,
ज़ख्मों को उड़ जाने दो।
ज़ख्मों को पाकर, थम न जाना।
ज़ख्मों को व्यक्त कर, आगे बढ़ जाना।
4 responses to “ज़ख्मों को व्यक्त कर, आगे बढ़ जाना”
चाहता था कि मैं भी भुला दूँ उन्हें,
भूल पाने की कोशिश धरी रह गई,
जख्म पर लाखों मरहम लगाए मगर,
जो दिए जख्म अब भी हरी रह गई।
बहुत खूब
हिम्मत ही नहीं होती है😑😳
Ohh..koi bat nahi..
Dhire dhire ho jaega..ek din to pakka ho hi jaega☺️👍👍✌️