(1)
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पार्णिन तु कंकणेन।
विभाति काय: करूणापराणा, परोपकारैन तु चंदननेन।।
अर्थात्
कानों की शोभा कुंडलो से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है, हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणो से, दयालु और सज्जन व्यक्तियों का शरीर चंदन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है।
(2)
नास्ति विधा समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:।
नास्ति राग समं दु:खम् नास्ति त्याग समं सुखम्।।
अर्थात्
विधा के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है।
bahut hi khubsurat panktiyaan……mann ko sukun deta hua.
Thank you madhusudan jii..😊😊