गुरु का महत्व- संस्कृत श्लोक (पहला भाग)
भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु (तीसरा भाग)
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
भावार्थ :
प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है ।
मैंने इस स्तोत्र से प्रेरणा लेकर एक रचना लिखी है। रचना में मैंने कहा है कि हम कैसे अपने बुरे दौर में भी सकारात्मक और गतिशील रह सकते हैं और कुछ लोगों से मिले बुरे अनुभव को भी एक आकार दे सकते हैं। जैसे कि स्तोत्र में कहा है कि हर कोई गुरु समान है, जिससे हमने कुछ सीखा है।
रचना: नया नज़रिया!
मुझे रास्ते से भटकाने के लिए,
तुमने मेरा रास्ता, कांटों से भर दिया।
पर मैंने तो कांटों पर
चलना सीख लिया।
मुझे परेशान करने के लिए,
तुमने मेरे साथ, बुरा बर्ताव किया।
पर मैंने तो धैर्य और सहनशीलता का
गुण सीख लिया।
मुझे विफल करने के लिए,
तुमने योजनाएं बनाना शुरू किया।
पर मैंने तो मेरा मनोबल और इरादा
दोनों को ओर मज़बूत करना सीख लिया।
मैंने एक कला सीख ली,
रास्ते के पत्थर को सफलता की सीढ़ी
बनाने की कला सीख ली,
उस के लिये तेरा शुक्रिया करना चाहूंगी।
यह “तू” कोई व्यक्ति हो सकता है, बुरा समय या तो कोई परिस्थिति भी हो सकती हैं। हम सब को एसे अनुभव से पसार होना ही पड़ता है, पर देखा जाए तो एसी जटिल परिस्थितियां ही हमें बेहतर इंसान बनाती है, हमें सफल बनाती है, पर यह तभी हो सकता है जब हम हार को स्वीकार कर बैठें न रहें और अपना मनोबल तूटने न दें, अपने कार्य को छोड़ न दें।
हमें हमेशा एसी परिस्थिति या तो व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता की भावना रखनी चाहिेए क्योंकि ये गुरु समान ही है, जिसने हमें सीखाया, जिनसे हमें कुछ सीखने की प्रेरणा मिली।