भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु (तीसरा भाग)

भगवान दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाए। वे कहते थे कि जिस किसी से भी जितना सीखने को मिले, हमें अवश्य ही उन्हें सीखने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। उनके 24 गुरुओं में वेश्या, बालक, चंद्रमा, कुमारी कन्या, कबूतर, पृथ्वी, सूर्य, वायु, मृग, समुद्र, पतंगा, हाथी, आकाश, जल, मधुमक्खी, मछली, टीटोड़ी पक्षी, अग्नि, सर्प, तीर (बाण) बनाने वाला, मकडी़, कीड़ा, अजगर और भौंरा (भ्रमर) हैं। 

उन्होंने 24 गुरु क्यों बनाए?
उनसे क्या सीखा?
आइए इसे समझते हैं।

(1) पृथ्वी- पृथ्वी से हम सहनशीलता व परोपकार की भावना सीख सकते हैं। कई लोग पृथ्वी पर अनेक प्रकार के आघात करते हैं, उत्पात एवं खनन के कार्य करते हैं, लेकिन पृथ्वी माता हर आघात को परोपकार की भावना से सहन करती है।

(2) वायु- दत्तात्रेय के अनुसार जिस प्रकार कहीं भी अच्छी या बुरी जगह पर जाने के बाद भी वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है, उसी प्रकार हमें अच्छे या बुरे लोगों के साथ रहने पर भी अपनी अच्छाइयों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

(3) आकाश- भगवान दत्तात्रेय ने आकाश से सीखा कि आकाश सब जगह है फर फिर भी वो निर्विकार है, वैसे ही हमारे शरीर का आकार है पर उसमें आत्मा निर्विकार है। हम चलते है, वैसे वैसे आभास होता है कि आकाश चलता है, पर आकाश तो स्थिर ही होता है, वैसे ही शरीर में चेतना है, एसा आभास होता है, पर चेतना आत्मा में होती है।

(4) जल– भगवान दत्तात्रेय ने जल से सीखा कि जैसे जल निर्मल होता है वैसे हमारे अंतर में सब के लिए स्नेह रखना चाहिए, मन पवित्र होना चाहिए, एकता की भावना होनी चाहिए, जल को जिस पात्र में डालें, वैसा ही आकार ले लेता है वैसे ही हमें सब के साथ घुल-मिल कर रहना चाहिए।

(5) अग्नि – दत्तात्रेयजी ने अग्नि से सीखा कि वह स्वयं तेजस्वी है, वैसे ही हमें हमारे गुणों से तेजस्वी रहना चाहिए और अग्नि जैसे अपने प्रकाश में अंधकार दूर करता है, वैसे ही हमें हमारे सत्व के प्रकाश में, दूसरों का तमस मिटाना चाहिए, दूसरों का तमस हावी नहीं होना चाहिए, जैसे कि अग्नि पर अंधकार कभी भी हावी नहीं होता, अग्नि सदा निर्लेप ही रहता है।

(6) चंद्र- हमारी आत्मा लाभ-हानि से परे है। वैसे ही जैसे चंद्रमा के घटने या बढ़ने से उसकी चमक और शीतलता नहीं बदलती, हमेशा एक जैसी रहती है, वैसे आत्मा भी किसी प्रकार के लाभ-हानि से बदलती नहीं है।

(7) सूर्य- भगवान दत्तात्रेय ने सूर्य से सीखा कि जिस तरह एक होने पर भी अलग-अलग माध्यमों से सूर्य अलग-अलग दिखाई देता है, वैसे ही आत्मा भी एक ही है, लेकिन वह कई रूपों में हमें दिखाई देती है और सूर्य जैसे प्रकाश, वर्षा परोपकार के लिए करते हैं वैसे ही हमें परोपकार करते रहना चाहिए।

(8) कपोत (कबूतर) – दत्त भगवान ने यह भी जाना कि जब कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे अपने बच्चों को देखकर खुद भी जाल में जा फंसता है, तो इससे यह सबक लिया जा सकता है कि किसी से बहुत ज्यादा स्नेह दु:ख की वजह बनता है।

(9) अजगर– भगवान दत्तात्रेय ने अजगर से सीखा कि हमें जीवन में संतोषी बनना चाहिए और जो मिल जाए, उसे खुशी-खुशी स्वीकार कर लेना ही हमारा धर्म होना चाहिए।

(10) समुद्र- जैसे समुद्र के पानी की लहर निरंतर गतिशील रहती है, वैसे ही जीवन के उतार-चढ़ाव मेंं हमें रुक नहीं जाना है, गतिशील रहना है, समुद्र वर्षा में बहक नहीं जाता और गीष्म में सूख नहीं जाता, एसी स्थिरता हमें समुद्र से सीखनी है।

(11) पतंगा- जैसे पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है, उसी प्रकार रंग-रूप के आकर्षण और झूठे मोह-जाल में हमें उलझना नहीं चाहिए।

(12) भौंरा- भगवान दत्तात्रेय ने भौंरे से सीखा कि जिस प्रकार भौंरे अलग-अलग फूलों से पराग ले लेता है और आनंदित रहता है, उसी तरह हमें अलग-अलग शास्त्र पढ़कर भी सार एक ही ग्रहण करना चाहिए, पर जैसे भौंरा कमल के मोह में आकर एक ही जगह स्थिर हो जाता है तो सांयकाल को कमल के बंद होने से भौंरा भी मर जाता है, उसी तरह हमें भी मोह में आकर एक ही स्थान पर नहीं रुक जाना चाहिए।

(13) हाथी- जैसे कोई हाथी हथिनी के संपर्क में आते ही उसके प्रति आसक्त हो जाता है, अत: हाथी से सीखा जा सकता है कि तपस्वी पुरुष को स्त्री का अति मोह नहीं करना चाहिए।

(14) मधुमक्खी-जब मधुमक्खियां शहद इकट्ठा करती हैं और एक दिन छत्ते से शहद निकालने वाला आकर सारा शहद ले जाता है, तो हमें इस बात से यह सीखना चाहिए कि आवश्यकता से अधिक चीजों को एकत्र करके नहीं रखना चाहिए।

(15) मृग- मृग की गति पवन जैसी ही तेज होती है, किसी की पकड़ में वह नहीं आ सकता पर वह संगीत के गान को सुनने को मोह में आ जाता है और उसे अपने आसपास अन्य किसी हिंसक जानवर के होने का या तो पारधी के होने का आभास ही नहीं होता है और वह मारा जाता है। इससे जीवन में यह सीखा जा सकता है कि हमें कभी भी कोई आकर्षण में पड़कर होश नहीं गवाना चाहिए।

(16) मछली- जिस प्रकार मछली किसी कांटे में फंसे मांस के टुकड़े को खाने के लिए चली जाती है और अपने प्राण गंवा देती है, वैसे ही हमें स्वाद को इतना अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। हमें ऐसा ही भोजन करना चाहिए, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा हो।

(17) वेश्या  दत्तात्रेयजी ने पिंगला नाम की वेश्या से यह सबक लिया कि हमें केवल पैसों के लिए नहीं जीना चाहिए। जब वह वेश्या धन की कामना में सो नहीं पाती थी, तब एक दिन उसके मन में वैराग्य जागा और उसे समझ में आया कि असली सुख पैसों में नहीं बल्कि परमात्मा के ध्यान में है, तब कहीं उसे सुख की नींद आई।

(18) टीटोड़ी पक्षी (Lapwing / ટીટોડી) – जिस प्रकार यह पक्षी मांस के टुकड़े को चोंच में दबाए रहता है और जब दूसरे बलवान पक्षी उस मांस के टुकड़े को उससे छीन लेते हैं, तब मांस का टुकड़ा छोड़ने के बाद ही पक्षी को शांति मिलती है। उसी तरह हमें पक्षी से यह सीखना चाहिए कि ज्यादा चीजों को पास में रखने की सोच छोड़ देना चाहिए। संग्रह करने की वृत्ति को त्यज देना चाहिए।

(19) बालक- जैसे छोटे बच्चे हमेशा चिंतामुक्त और प्रसन्न दिखाई देते हैं, वैसे ही हमें भी हमेशा चिंतामुक्त और प्रसन्न रहना चाहिए।

(20) कुमारी कन्या- भगवान दत्तात्रेय ने एक बार एक कुमारी कन्या देखी, जो धान कूट रही थी। धान कूटते समय उस कन्या की चूड़ियां आवाज कर रही थीं। बाहर मेहमान बैठे थे जिन्हें चूड़ियों की आवाज से परेशानी हो रही थी। तब उस कन्या ने चूड़ियों की आवाज बंद करने के लिए चूड़िया ही तोड़ दीं। दोनों हाथों में बस एक-एक चूड़ी रहने दी। उसके बाद उस कन्या ने बिना शोर किए धान कूट लिया अत: हमें भी एक चूड़ी की भांति अकेले ही रहना चाहिए और निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए। ज्यादा लोगों का शोर भी हो सकता है, इसलिए एकांत में रहकर उसका सदुपयोग भी करना चाहिए।

(21) सांप- भगवान दत्तात्रेय ने सांप से सीखा कि किसी भी संन्यासी को अकेले ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। कभी भी एक ही स्थान पर न रुकते हुए जगह-जगह जाकर ज्ञान बांटते रहना चाहिए।

(22) तीर बनाने वाला- दत्तात्रेय ने एक ऐसा तीर बनाने वाला देखा, जो तीर बनाने में इतना मग्न था कि उसके पास से राजा की सवारी निकल गई, पर उसका ध्यान भंग नहीं हुआ। अत: हमें अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करना चाहिए।

(23) कीड़ा– दत्तात्रेय ने इस कीड़े से सीखा कि अच्छी हो या बुरी, हम जहां जैसी सोच में अपना मन लगाएंगे, मन वैसा ही हो जाता है। कीड़ा भौंरा के भय के कारण उसका ध्यान धरता रहता है और वह स्वयं भौंरा हो जाता है, स्नेह से या द्वेष से, जिसका भी ध्यान करे, वैसे ही हम हो जाएंगे।

(24) मकड़ी- दत्तात्रेय ने मकड़ी से सीखा कि भगवान भी मायाजाल रचते हैं और उसे मिटा देते हैं। ठीक वैसे ही जैसे एक मकड़ी स्वयं जाल बनाती है, उसमें विचरण करती है और अंत में पूरे जाल को खुद ही निगल लेती है। ठीक इसी तरह भगवान भी माया से सृष्टि की रचना करते हैं और अंत में उसे समेट लेते हैं।





20 thoughts on “भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु (तीसरा भाग)

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  1. भगवान दत्तात्रेय का नाम सुना था लेकिन कभी पढ़ नहीं पाया। बहुत खुशी हुई इन्हें पढ़कर और ज़िंदगी जीने कि एक नई सिख भी मिल गई इस गुरू पूर्णिमा पर। धन्य है वो गुरू जी जो कब किस रूप में मिल कर अपनी मोहब्बत बरसा देते है🙏🙏😊😊😇😇

    1. दत्तात्रेय भगवान ब्रह्मा, विष्णु और शिव का ही रूप है, उनकी भक्ति में, त्रिदेव की भक्ति हो जाती है। गुरु के रूप में उन्हें पूजा जाता है।😊😊

  2. Fantastic. Such a beautiful post on Lord Dattatreya’s Gurus. We can also learn so much from them. Thank you, dear for sharing such a wonderful post.

  3. मार्कण्डेय पुराण को पढ़ भगवान दत्तात्रेय को जाना था। आज आपके इस ब्लॉग को पढ़ बहुत कुछ जाना। बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
    ज्ञान हम कदम कदम पर सीखते हैं परन्तु गुरु के बिना या बिना गुरु माने किसी को हम कुछ भी नही सिख सकते।

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