प्रेम के पन्नों पर धूल जम गई

भीड़ में ही रहती हूँ,
क्योंकि अकेले में रह नहीं पाती।

भीड़ के माहौल में खो जाती हूँ,
क्योंकि अपने गम में न खो जाऊं।

नये माहौल की ही तलाश में रहती हूँ,
क्योंकि जो माहौल है, वो चुभता है।

हर पल घुटन है,
हर पल विश्वसनीयता की कमी है,
हर पल बनावटी बातें है।

चुभन एक सज़ा बन चुकी है,
जो मैं काट रही हूँ।

प्रेम और विश्वास के पन्नों पर,
अभिमान, भय और बनावटीपन की
धूल जम गई है।

इस माहौल में जीना, असहनीय है,
जिस माहौल में बनावटीपन ही है।

प्रेम के साफ पन्नो पर,
अकारण ही धूल जम गई है।

12 thoughts on “प्रेम के पन्नों पर धूल जम गई

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  1. सुंदर रचना… बिल्कुल सही लिखा आपने आजकल बनावटी पन और नुमाइशों का ही दौर है।

  2. Hi,

    Dhool hataiey ki saaf ho jaie.
    Chamakte chand ko kaale badal dhak lene se kuch pal roshni bhale kum ho…par badal chatt tey he roshni wapis aa jati hai…

    Banawtipun toh kalakarou-ka-fashion,
    Ya aap bhi banawti ho jaey
    Ya aise logo se dhoor ho jae…

    Yahi kahunga, dhool hataiey.

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